Sunday, October 05, 2014

आयत

खुदा खुद करता रहा
ढूंढ़ता में उसको
क्या पता था खो गया में
भीड़ में उस खुद को

लोगों में , ख़्वाबों में, सपनो में खोजता ...
क्या गुमा है जिसको जोड़ के सजाता ...
अधूरा सा हैं कुछ , नहीं मिल है जाता ..
क्या है जो इसे परिपूर्ण बनाता

कुछ ढूंढा ..
कुछ पाया ..
चला मीलों दूर में ..
फिर ठहर के सोचा ..
क्या पंथी ..या पथ में ..
मंज़िलों के पीछे ..
कुछ रास्ता भुला में ..
वह सुकून के पल ..
और साथ छूटा में ..

बंद आँखों में किसी की
मुस्कुराहटें नज़र आये
और आंसूं देख कर फिर
दिल भी देहल जाए
राहगीर नहीं वोह
तोह क्या यह भी जान न पाये

सलामत सखे सभी को
परवर दीगर तेरा मेरा
दिन रहा तोह मिलेगा जब
तोह हिसाब लेंगे तेरा मेरा 

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