Friday, November 02, 2018

रौशनी दिवाली की

इस दिवाली ढूंढ़ती हूँ कुछ रौशनी आँखों में अपनों की
ख़ुशी की, उम्मीद की..और कुछ पूरा होते सपने की
ढूंढ़ती हूँ कुछ मिठास, रिश्तों में अपनों की
कुछ प्यार की, कुछ दुलार की.. कुछ यादों में इंतज़ार की 
ढूंढ़ती हूँ रौनक अपनों के घर आने की,
मिलन की, उत्सुकता की ... अपनों के प्यार की
ढूंढ़ती हूँ वह रिश्ते, जुड़े थे जो प्यार से,
कुछ मनुहार से, और कुछ प्यार की तकरार से

खो गएँ हैं ना जाने कहाँ, मेरा एक छोटा जहाँ
एक घर अपना सा, कुछ गरम, कुछ नरम सा
वह दोपहरी में दाल चावल के साथ माँ का प्यार जाताना,
और शाम को चाय की चुस्कियों के साथ,
पापा को दिन भर का हाल बतियाना
 और कुछ मनपसंद खाने माँ से बनवा
साथ सबके टी वी की महफ़िल जमाना

दिवाली भी होती थी रौशनी भरी
जब पटाके होते थे कम..
रतजगा कर माँ मिठाई बनाती,
रंगोली, सजावट करते हम
खील बताशों की खरीदारी थी
पापा भाई के जिम्मे,
और सजावट लाइट की तैयारी
से भाई बनाये रोशन हर कोने 

पर अब तोह लगता है दिवाली
कोई उधार बन कर आयी
कुछ रीती रिवाजों का चुकता और भरपाई
सिमटा था जो घर, छितरा सा जाता है
घर का दिया भी टीम टीम कर सिहरन से घबराता है...
लक्समी गणेश ढूँढ़ते आसरा भी कोई कोने में..
राह ताकता डब्बा मिठाई का
कर लो साथ मुँह मीठा तुम