Wednesday, June 06, 2007

खामोशी कि ज़ुबा

खामोशी कि ज़ुबा काश तुम सुन पाते
उन् खामोश लम्हों मे भी ... कुछ सुर गुनगुनाते

ता उम्र करते रहे कोशिश , समझाने कि तुमको
वोह जो हमने कहा नहीं , काश तुम वोह सुन पाते

ना कोई उम्मीद, ना आरजू, कि हमने तुमसे
फिर क्यों सिर्फ हम पर ही, इल्जाम तुम यह फिर लगाते

ना दोस्ती, ना जान ... माँगा सिर्फ तुमको
एक नज़र उस नाचीज़ कि , रह गुज़र हो हमको

उम्मीद क्या करे तुमसे , सिर्फ है तुम्हे चाहते ,
इतनी दूरियाँ है कि , कैसे तुम्हे बताते

समज्ह लो खुद ही, एस खामोशी कि जुबां
शायद ना हो कल हम, कहने को अलविदा .

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